इतना स्पष्ट कहने के बाद भी समझ में नहीं आता , तो इसमें मैं क्या कर सकता हूँ ।यह तो स्पष्ट है कि यह प्रकृति ऊर्जा संरचना का जाल हैं और यह एक अभौतिक तत्व से उत्पन्न होता है ।हमारा सारा आध्यात्म इसी ऊर्जा संरचना की व्याख्या पर आधारित है|जीवन रसायनिक पदार्थों की उत्पत्ति नहीं है ।बल्कि रासायनिक पदार्थों की उत्पती इस ऊर्जा संरचना की व्यवस्था से होती है।क्योंकि कोई भी मैटर कीसी इकाई में उत्पन्न होता है|और उस इकाई का पूरा अस्तित्त्व एक ऊर्जा संरचना का है|स्थूल और स्थूल की तमाम अवस्थाये , हमारी अनुभूति का प्रत्यक्ष है, पर हमारी अनुभूति वास्तविक नहीं है।प्रत्येक पदार्थ आधुनिक खोजे अनुसार भी परमाणुओं का जाल है और परमाणु शुद्ध ऊर्जा रूप है|इस पर आईन्स्टिन ने एक फार्मूला भी दिया है e=mc(square) ।इसमें e एनर्जी है , m मैटर हैं यानी पदार्थ और c एक निश्चित संख्या है।अब यदि सभी पदार्थ एनर्जी है , तो रासायनिक पदार्थ भी एनर्जी रूप ही है।सनातन धर्म में एनर्जी के अनंत रूपों की व्याख्या है।यह कैसे उत्पन्न होता है इसका प्रारम्भ कहाँ से होता है , अंत कहाँ से होता है , यह सभी कुछ इस विज्ञानं में स्पष्ट किया गया है।इसी को ब्रम्ह विद्या या तन्त्र विज्ञान कहा गया है।इसे तत्व विज्ञानं भी कहा जाता है, क्योंकि सबकी उत्पत्ति एक तत्व से होती है ,जो भौतिक नहीं है, क्योंकि उसमें कोई गुण नहीं है।गीता में श्री कृष्ण ने कहा है कि गुण ही गुण बरतते है , तत्व सदा निर्गुण रहता है।इस विज्ञान का कोई भी हिस्सा ऐसा नहीं है , जो प्रमाणित न हो|
क्योंकि सबके प्रमाण आधुनिक विज्ञान के नियमों एवं प्रकृति में व्याप्त है ।अब मुसीबत यह है कि हम इसके विज्ञान को समझने की जगह अपनी आस्थाओं को समझने लगते है।सभी तन्त्र शस्त्रियों ने कहा है कि ज्ञान संस्कार को जलाने के बाद ही प्राप्त होता है।जो पूर्व संस्कार से ग्रसित है वो सत्य को नहीं जानना चाहता।यदि कोई कहता भी , तो उसे अपने संस्कारों के कसौटी पर कसता है।संस्कार हमेशा बदलते रहते है , हर युग में उसकी मान्यताएं अलग अलग होती है।उसके आधार पर किसी शाश्वत ज्ञान का प्रत्यक्ष नहीं किया जा सकता है।जहाँ तक राम और कृष्ण की बात है , उन्हें अवतार कहा जाता है , जो उस इश्वर का अंश होता है।पानी पानी में अंतर नहीं होता , पर विशाल झील और ग्लास में रखा हुआ उसी झील का पानी एक होते हुए भी बहुत सारा अंतर रखता है।जहाँ तक एक के ग्रन्थ में दुसरे के न होने का प्रश्न है , तो यह कोई आश्चर्य नहीं है। पंथ , सम्प्रदाय, मार्ग, आदि की कट्टरता मनुष्य में हर युग में रही है ।जब पुराणों को पढेंगे, तो और भी आश्चर्य होगा।कहीं शिव को विष्णु से श्रेष्ठ बताया गया हैं , तो कहीं विष्णु को शिव से श्रेष्ठ ।तन्त्र विद्या के साधक वैदिक देवी -देवताओं के भी जिस रूप की आरधना करते है और जिन विधियों से करते है वह वैदिक मार्ग के सर्वथा विपरीत है , एक एक मार्ग में भी अनेक मान्यताये हैं , अनेक विधियाँ है ।यह भ्रम पैदा नहीं करता , क्योंकि आज से 500 बरस बाद यदि हम अपने विज्ञान की व्याख्या करेंगे , तो हर चीज जैसे जैसे विकसित हुई हैं और नए नए स्वरूपों में ढली हैं , उसका अलग अलग विवरण हमे प्राप्त हो , तो समझ में ही नहीं आएगा कि कौन सा सही हैं कौन सा गलत ।वस्तुतः सनातन धर्म में वैदिक मार्ग हो या तन्त्र मार्ग एक पॉवरसर्किट का वर्णन होता है वह 0 से उत्पन्न होता है , जिसे परमात्मा या परमसार कहा जाता है।या पूरा सर्किट मेरे साथ कोई कंप्यूटर विशेषज्ञ बैठे , तो बनते हुए और पूरे ब्रह्माण्ड को विकसित होते हुए , समस्त पेड़ पौधे ग्रह आदि को नियमों से उत्पन्न करके मैं दिखा सकता हूँ की यह क्या हैं? परन्तु वैज्ञानिक क्षेत्र अपने संस्कार के अन्धास्था में डूबा हुआ है।वह मानने के लिए तैयार ही नहीं है की चरवाहों और सपेरों की संस्कृति में कोई विज्ञान था।और दुःख की बात भी यह है की भारत सरकार भी इसी दृष्टिकोण से पीड़ित है|